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कविता

हमको भी आता है

देवेंद्र कुमार बंगाली


पर्वत के सीने से झरता है
              झरना...
हमको भी आता है
भीड़ से गुजरना।

कुछ पत्‍थर
कुछ रोड़े
कुद हंसों के जोड़े
नींदों के घाट लगे
कब दरियाई घोड़े
       मैना की पाँखें हैं
       बच्‍चों की आँखें हैं
       प्‍यार है नींद, मगर शर्त
              है, उबरना।

गूँगी है
बहरी है
काठ की गिलहरी है
आड़ में मदरसे हैं
सामने कचहरी है
बँधे खुले अंगों से
भर पाया रंगों से
डालों के सेव हैं, सँभाल के
कुतरना।

 


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